अष्टावक्र गीता-दोहे -11
*अष्टावक्र गीता*-11
लोलुपता जिसके लिए,इंद्र आदि हिय होय।
हर्षित कभी न कर सके,योगी-मन को सोय।।
पाप-पुण्य-अनुभूति से, ब्रह्म-वेत्ता दूर।
धूम्र-गगन-संगति नहीं,भले उड़े भरपूर।।
अपने में ही विश्व को,देखे पुरुष महान।
वर्तमान में वह रहे,सके न रोक जहान।।
ब्रह्मा से ले तृण तलक,प्राणी चार प्रकार।
रखे न इच्छ-अनिच्छ में,ज्ञानी आत्म विचार।।
एक ईश-आत्मा जगत,जिसको है यह ज्ञान।
नहीं किसी से भय उसे,वह है पुरुष सुजान।।
©डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
Mohammed urooj khan
26-Feb-2024 12:20 PM
👍👍👍
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Gunjan Kamal
25-Feb-2024 10:58 PM
👌👏🏻
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Varsha_Upadhyay
25-Feb-2024 12:06 AM
Nice
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